हर्रा, महुआ और बहेडा काश
तुम शहरो मे भी होते
तो हमारे शहर
अस्पतालो मे नही सोते
कीटो को मारने वाला जहर
अब हमे कीटो की तरह मार रहा है
बेस्वाद उत्पाद वो भी इतने ऊँचे दामो पर
बडी परेशानी मे डाल रहा है
काश मेरे किसान तुम जैविक फसले ही बोते
हर्रा, महुआ और बहेडा काश
तुम शहरो मे भी होते
तो हमारे शहर
अस्पतालो मे नही सोते
शहरो मे घर तो है पर
सारे रोगो के घर है
तन और मन दोनो ही मे
कीटाणुओ का असर है
काश बूढे पीपल और बरगद प्रदूषण मे
खून के आँसू ना रोते
हर्रा, महुआ और बहेडा काश
तुम शहरो मे भी होते
तो हमारे शहर
अस्पतालो मे नही सोते
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित
3 comments:
नए तेवर की, नए मजहब की, जरूरी कविता.
शानदार!
बहुत बढ़िया. जरुरत है आज कांक्रिट जंगलों मे वास्तविक जंगलों के एक हिस्से की. सुन्दर विचार.
पंकज जी ,बहुत बढिया रचना लिखी है।
हर्रा, महुआ और बहेडा काश
तुम शहरो मे भी होते
तो हमारे शहर
अस्पतालो मे नही सोते
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