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Sunday, May 27, 2007

मै सोचता हूँ

क़ाश! जहरीले रतनजोत पर बहाया जा रहा पैसा
विदर्भ के किसानो को मिल जाता
क़र्ज तले दबे भूमि पुत्रो का
चेहरा खिल जाता

क्रिकेट मे बह रहा देश का पैसा
कुछ पल के लिये विदर्भ की ओर बह जाता
तो कर्ज मे दबा,
परिवार प्रमुख जीवित रह जाता

वायु यानो मे रोज सफर करने वाला,
समय की कमी का रोना रोता नेता
क़ुछ देर घर मे रुकता,
और खर्च किसानो को देता

तो विदर्भ के घरो मे फिर चूल्हा जल जाता
क़र्ज तले दबे भूमि पुत्रो का
चेहरा खिल जाता

दाता ही ना होगा तो हमे खिलायेगा कौन,
अपने सुख के लिये,
क्यो है हम इस पर मौन

क़रगिल के लिये जो जस्बा दिखाया था
उसी की अब फिर है जरुरत
ओ युवाओ! तुम्ही बदल सकते हो,
इस देश की सूरत

अन्नदाता को आदर देने वाला देश ही
फलता-फूलता है
अपने देश की तरह जहाँ रोज किसान
फांसी मे नही झूलता है

कह रहा हूँ आपको अपना जानकर
दूसरा होता तो कह ना पाता

क़ाश! रतनजोत पर बहाया जा रहा पैसा
विदर्भ के किसानो को मिल जाता
क़र्ज तले दबे भूमि पुत्रो का
चेहरा खिल जाता

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’