अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था
मानवो की कई पीढीयाँ देख चुके
हजारो वृक्ष कटे पडे थे
कुछ समय पहले तक वे धरती के सीने पर
नगीने की तरह जडे थे
इतने लम्बे समय तक सेवा देने वालो से
पता नही ‘ठेकेदारो’ का क्या झगडा था
अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था
सोचता हूँ कब तक सब जानकर भी हम
इन लाशो से घर सजाते रहेंगे
कब लकडी का मोह छोडेंगे
और खुलकर ‘ना’ कहेंगे
हत्यारो की बिरादरी का खुद को पाकर
मै शर्म से ग़डा था
अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित
3 comments:
ओह कितना दर्द है आपकी कविता में
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था
सुनीता(शानू)
अच्छा लिखा है। पेड़ के दर्द से एक कवि का दिल ही ऐसे पसीज सकता है.
भारत के दर्द भरे स्वर… उढेल दिया आपने सामयिक परिपेक्ष पर हृदय की धारा को…
बहुत सुंदर लगा…।
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