Friday, July 6, 2007

जैसे मै वृक्षो के श्मशान मे खडा था

अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था

मानवो की कई पीढीयाँ देख चुके
हजारो वृक्ष कटे पडे थे
कुछ समय पहले तक वे धरती के सीने पर
नगीने की तरह जडे थे

इतने लम्बे समय तक सेवा देने वालो से
पता नही ‘ठेकेदारो’ का क्या झगडा था
अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था

सोचता हूँ कब तक सब जानकर भी हम
इन लाशो से घर सजाते रहेंगे
कब लकडी का मोह छोडेंगे
और खुलकर ‘ना’ कहेंगे

हत्यारो की बिरादरी का खुद को पाकर
मै शर्म से ग़डा था
अब तक उस स्थान का भय है
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित

3 comments:

सुनीता शानू said...

ओह कितना दर्द है आपकी कविता में
जहाँ तख्ती मे मैने ‘सरकारी काष्ठागार’ पढा था
मुझे लगा जैसे मै वृक्षो के
श्मशान मे खडा था
सुनीता(शानू)

Satyendra Prasad Srivastava said...

अच्छा लिखा है। पेड़ के दर्द से एक कवि का दिल ही ऐसे पसीज सकता है.

Divine India said...

भारत के दर्द भरे स्वर… उढेल दिया आपने सामयिक परिपेक्ष पर हृदय की धारा को…
बहुत सुंदर लगा…।