लकडी और लडकी दोनो मे
बडी समानता है
इन दोनो के साथ हमारा व्यवहार
हमारी अज्ञानता है
क्या बचपन, क्या यौवन।
अंत्यावस्था तक सब लडकी को
चोट पहुँचाते है
कभी उसे पीटते तो कभी
लकडी की तरह जलाते है
लोग-बाग लकडी को जला
ऊष्मा पाते है
लोग-बाग लडकी को जला
दानवी प्यास बुझाते है
लोग-बाग निर्दोष लकडी को
ठूंठ बनाकर छोड देते है
लोग-बाग निर्दोष लडकी को
’पराया धन बताकर छोड देते है
लकडी धूप-छाँव सब
सह जाती है
लडकी भला उफ कब
कह जाती है
लडकी बेसहारे का सहारा
अन्धे की लाठी बन जाती
लकडी डूबते का किनारा
अन्धे की जीवन-साथी बन जाती
दोनो पुण्य पथ पर चलती है
फिर भी दोनो कटती है, जलती है
क्यो? क्यो? क्यो?
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
1 comment:
दोनो मूक जो हैं।
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