Friday, June 29, 2007

किसी किसान को राष्ट्रपति बनाये

चलो हिम्मत कर
एक स्वप्न सजाए
विदर्भ मे आत्महत्या की तैयारी करते
किसी किसान को राष्ट्रपति बनाये

देश के सत्ताधीश किसानो के लिये
कुछ नही कर पा रहे है
उल्टे उपजाऊ जमीन पर
उद्योग लगवा रहे है

सम्भव है किसान राष्ट्रपति ही कोई
सशक्त राह दिखाये
चलो हिम्मत कर
एक स्वप्न सजाए
विदर्भ मे आत्महत्या की तैयारी करते
किसी किसान को राष्ट्रपति बनाये

जानता हूँ शायद कभी ही
यह स्वप्न साकार हो पाये
हम निद्रा से जागे, इससे अच्छा तो
नेताओ को जगाये

चलो अबकी बार ऐसे नेता चुने
जो किसान को देश की बागडोर थमाए
चलो हिम्मत कर
एक स्वप्न सजाए
विदर्भ मे आत्महत्या की तैयारी करते
किसी किसान को राष्ट्रपति बनाये

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Thursday, June 28, 2007

काली राजधानी

काजल की कोठरी मे नही रहते
फिर भी हाथ-पैर है काले
हरे-भरे शहर मे अब प्राणवायु
के है लाले

स्पाँज आयरन सन्यंत्र का प्रदूषण
अब उसके रग-रग मे बहता है
जो छ्त्तीसगढ की ‘काली राजधानी’ मे
रहता है

घर काले
फसल काली
लगता है योजनाकारो की
अक्ल काली

कुछ लोगो के फायदे के लिये
पूरा शहर यह सहता है
स्पाँज आयरन सन्यंत्र का प्रदूषण
अब उसके रग-रग मे बहता है
जो छ्त्तीसगढ की ‘काली राजधानी’ मे
रहता है

बच्चो की सोच कर
मन रोता है
अपने ही देश मे हमारे चुने लोगो की मनमानी
मन आपा खोता है

स्वच्छ और सुंदर भारत का स्वप्न-महल
अब ढहता है
स्पाँज आयरन सन्यंत्र का प्रदूषण
अब उसके रग-रग मे बहता है
जो छ्त्तीसगढ की ‘काली राजधानी’ मे
रहता है

मालूम है मुझे सारे देश का
ऐसा हाल है
फिर भी हम सब चुप है
क्या कमाल है

ऐसे तो जुल्म बढेगा ही ये मेरा मन
कहता है
स्पाँज आयरन सन्यंत्र का प्रदूषण
अब उसके रग-रग मे बहता है
जो छ्त्तीसगढ की ‘काली राजधानी’ मे
रहता है

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Wednesday, June 27, 2007

फिर भी सभ्य कहलाते है

मौके-बेमौके बम फोडने का मौका
नही गँवाते है
लोगो का चैन हरते फिर भी
सभ्य कहलाते है

चन्द बम जिन्हे हम मिनटो मे
राख कर देते है
उतने पैसे न मालूम कितने
भूखो का पेट भर देते है

ये हमारी अय्याशी है जो बम निर्माता
बच्चो से यह जानलेवा काम करवाते है
मौके बेमौके बम फोडने का मौका
नही गँवाते है
लोगो का चैन हरते फिर भी
सभ्य कहलाते है

जानते है, किसी घर मे कोई मरीज
जब बम की आवाज से कराह्ता है
तो आपके नव विवाहित परिजन के लिये
उसका मन कडवाहट से भर जाता है

क्यो आशीर्वाद की जगह बददुआ पाते है
मौके बेमौके बम फोडने का मौका
नही गँवाते है
लोगो का चैन हरते फिर भी
सभ्य कहलाते है

आप क्या कर सकते है
जमाना ही ऐसा है
अरे ये तो बहाना बनाने
जैसा है

क्यो नही ऐसे आयोजनो का बहिष्कार
करते और करवाते है
मौके बेमौके बम फोडने का मौका
नही गँवाते है
लोगो का चैन हरते फिर भी
सभ्य कहलाते है

आप सहकर कोई बडा काम
नही कर रहे है
कान ही नही खराब कर रहे बच्चो मे
गलत संस्कार भी भर रहे है

क्यो नही बम के पैसो से फल खिलाकर
अपने बच्चो का स्वास्थ्य बनाते है
मौके बेमौके बम फोडने का मौका
नही गँवाते है
लोगो का चैन हरते फिर भी
सभ्य कहलाते है

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Tuesday, June 26, 2007

हर ओर कारे ही कारे

नयी कारे, पुरानी कारे
हर ओर कारे ही कारे
प्रदूषण से लड लड
हम हारे

अब तो मौसम भी बदल रहा है
या कहे बदला ले रहा है
ठन्ड मे सुकून देने वाला सूरज
अब सब कुछ जला दे रहा है

अब तो हम अपनी भूल स्वीकारे
नयी कारे, पुरानी कारे
हर ओर कारे ही कारे
प्रदूषण से लड लड
हम हारे

मौसम पर विश्व सम्मेलन कर
व्यर्थ चिंता जताना अब छोडे
खुद छोटे प्रयास कर
आस-पास के लोगो को जोडे

बातो मे ही ना गँवा दे पल सारे
नयी कारे, पुरानी कारे
हर ओर कारे ही कारे
प्रदूषण से लड लड
हम हारे

क़ारो को छोड कुछ पैदल भी
चल ले
ताकि अच्छा स्वास्थ मिले और
बच्चे साफ हवा मे पल ले

नये पेड नही लगा सकते तो
पुराने को ही पाले और सँवारे
नयी कारे, पुरानी कारे
हर ओर कारे ही कारे
प्रदूषण से लड लड
हम हारे

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Monday, June 18, 2007

’हत्या’ क्यो नही मानते है

वृक्षारोपण के नाम पर फिर
पतले विदेशी वृक्ष लगेंगे इस बार
और पुण्य का दम्भ भर कर
अपनी ही पीठ थपथपायेगी सरकार

सघन आबादी मे प्राण वायु का संचार
करते है पीपल और बरगद
पर आधुनिक योजनाकार मानते है
इन्हे विकास मे बाधक

यह जानते हुये कि ये ही
मिटा सकते है पर्यावरणीय विकार
वृक्षारोपण के नाम पर फिर
पतले विदेशी वृक्ष लगेंगे इस बार
और पुण्य का दम्भ भर कर
अपनी ही पीठ थपथपायेगी सरकार

वृक्ष मे जीवन है
यह सभी जानते है
फिर वृक्ष की कटाई को
’हत्या’ क्यो नही मानते है

पुराने वृक्षो को बचाने नये हरे कानूनो की है अब दरकार
वृक्षारोपण के नाम पर फिर
पतले विदेशी वृक्ष लगेंगे इस बार
और पुण्य का दम्भ भर कर
अपनी ही पीठ थपथपायेगी सरकार

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Sunday, June 17, 2007

एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

वो समझते है अच्छा व्यापार
कर रहे है
सच मानो तो आहो से घर
भर रहे है

अगर पैसे मिले तो वे क्लेश और विद्वेष बेचेंगे
सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

करोडो के इस देश मे
क्या कुछ ही करेंगे मजे
आम लोग सडको पर
और अरबो मे सिर्फ एक घर सजे

जाने कब ये बनेंगे सही भारतीय
और प्रेम का सन्देश भेजेंगे
सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Saturday, June 16, 2007

कौन प्राणी और कौन निष्प्राण

फिर सुना है कि
गली के कुछ कुत्ते
नवजात शिशु को खा गये
और जब हत्यारो को मारना चाहा
तो ‘कुछ लोग’ इन्हे बचाने आ गये

ऐसी खबरो से मन है विचलित
मानव मानव को ना समझे
मन है व्यथित

इन खबरो पर सारा समाज
मौन है
यह जानकर भी कि ये ‘कुछ लोग’
कौन है

आज के युग मे यह मौन स्वीकृति
करे चकित
ऐसी खबरो से मन है विचलित
मानव मानव को ना समझे
मन है व्यथित

यह भी सुना है
छ्त्तीसगढ मे कुत्ते हिरणो
को खा रहे है
उनके कारण बन्दर वनो मे
चैन से पानी नही पी पा रहे है

क्या कुत्ते ही प्राणी है
और बन्दर, हिरण, इंसान प्राण रहित
ऐसी खबरो से मन है विचलित
मानव मानव को ना समझे
मन है व्यथित

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

टी.वी. चैनल ’विश्व भूत सप्ताह’ तो नही मना रहे

‘भूतो की अदालत’, ‘भूतो का डाँस’, ‘क्या भूत होते है’,
कही भारतीय टी.वी. चैनल
’विश्व भूत सप्ताह’ तो नही मना रहे है
जो सुबह-शाम भूतो के बारे
मे बता रहे है

भूतो पर कुछ सहमत तो
कुछ असहमत है
चलो उन समस्याओ को पहले हल कर ले
जिस पर सब एकमत है

क्यो आम लोगो को और उलझा रहे है
कही भारतीय टी.वी. चैनल
’विश्व भूत सप्ताह’ तो नही मना रहे है
जो सुबह-शाम भूतो के बारे
मे बता रहे है

सबका अपना भूत है
पर चिंता करो कल की
भूत से भी कुछ सबक लो
और बाट जोह सुनहरे पल की

यही तो हमारे बुजुर्ग जाने कब से समझा रहे है
कही भारतीय टी.वी. चैनल
’विश्व भूत सप्ताह’ तो नही मना रहे है
जो सुबह-शाम भूतो के बारे
मे बता रहे है

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Friday, June 15, 2007

महलो को बना ले खेत

केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

अपने घर का छिन जाना
बहुत दुखदायी है
इस दर्द को वही असल मे जाने
जिसने चोट खायी है

क्यो चन्द सिक्को की चाह मे
गरीबो की बददुआ रहे है समेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

नियमगिरि हो या नन्दीग्राम
किसान असहाय देख रहे है
नेता तो बस अपनी रोटी
सेंक रहे है

आखिर किस किससे बचे
प्रकृति ने छोडा तो अपनो ने लिया लपेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

प्रेम और प्रकृति को छोड
चलो अब असल जीवन पर भी लिखे
क्यो न हम कवि
आम लोगो की लडाई मे भी दिखे

ऐसा लिखे कि शोषक़ॉ की जमात
सदा के लिये जाये चेत
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

आस्था और परम्परा हमारी शान, हमारी पहचान

बरसो पुरानी आस्थाओ और परम्पराओ को गलत बता
क्या हम हो गये है विद्वान
या बुजुर्गो के वैज्ञानिक ज्ञान का मजाक
है हमारा अज्ञान


तुलसी मंजरी क्यो अर्पित की जाती है
क्यो नदियो मे है सिक्के डाले जाते
क्यो छीकने पर रोके यात्रा
क्यो इमली वृक्ष भूतो का डेरा कहलाते

इन सबका का अपना तर्क है और अपना विज्ञान
बरसो पुरानी आस्थाओ और परम्पराओ को गलत बता
क्या हम हो गये है विद्वान
या बुजुर्गो के वैज्ञानिक ज्ञान का मजाक
है हमारा अज्ञान

क्या ये परम्परा इसीलिये गलत है
क्योकि पुरानी है
या इसके पालको की आवाज
अब तक हमने नही पह्चानी है

इनसे ही है भारत की सही पह्चान
और सम्मान
बरसो पुरानी आस्थाओ और परम्पराओ को गलत बता
क्या हम हो गये है विद्वान
या बुजुर्गो के वैज्ञानिक ज्ञान का मजाक
है हमारा अज्ञान

बचपन मे ही बालो का झडना
जवानी मे बुढापा आना
ये नयी पीढी की है देन
बुजुर्गो पर लाँछन मत लगाना

उनका जीवन ढंग ही सही था
वे ही है अनुभवो की खान
बरसो पुरानी आस्थाओ और परम्पराओ को गलत बता
क्या हम हो गये है विद्वान
या बुजुर्गो के वैज्ञानिक ज्ञान का मजाक
है हमारा अज्ञान

आओ। आस्थाओ और परम्पराओ
का वैज्ञानिक आधार खोजे
और नयी पीढी को
इनसे जोडे

इनकी रक्षा के लिये लगा दे जान
बरसो पुरानी आस्थाओ और परम्पराओ को गलत बता
क्या हम हो गये है विद्वान
या बुजुर्गो के वैज्ञानिक ज्ञान का मजाक
है हमारा अज्ञान

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Thursday, June 14, 2007

पारम्परिक चिकित्सा नही है वैकल्पिक

अपने देश मे जन्मी पनपी
और फिर भी वैकल्पिक
पारम्परिक चिकित्सा के लिये
यह तर्क है अवैज्ञानिक

अनगिनत वैद्य आज भी
वैधता की बाट जोह्ते है
अपना दर्द भूलकर
दिन रात सेवा करते रहते है

इन प्रकृति पुत्रो की भी
सुध ले ले तनिक
अपने देश मे जन्मी पनपी
और फिर भी वैकल्पिक
पारम्परिक चिकित्सा के लिये
यह तर्क है अवैज्ञानिक

महंगी दवा और इलाज
भारतीयो पर भारी है
मरीजो को लूटने की मची
मारामारी है

फिर आधुनिक चिकित्सा से राहत मिलती है क्षणिक
अपने देश मे जन्मी पनपी
और फिर भी वैकल्पिक
पारम्परिक चिकित्सा के लिये
यह तर्क है अवैज्ञानिक

आओ! अब पारम्परिक चिकित्सा को
मुख्यधारा से जोडे
असली चिकित्सको को नीम-हकीम
कहना छोडे

और देखे वनौषधीयो के चमत्कार अलौकिक
अपने देश मे जन्मी पनपी
और फिर भी वैकल्पिक
पारम्परिक चिकित्सा के लिये
यह तर्क है अवैज्ञानिक

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Sunday, June 10, 2007

सामने है प्रश्न अनंत

हर जन प्रदर्शन का अंत गोली से मौत
यह प्रजातंत्र पर है कलंक
भले ही प्रशासन मौन रहे
पर सामने है प्रश्न अनंत

लाठी और जूतो
से पिटाई
क्या किसी ने उन्हे
मानवता नही सिखाई

ये अंग्रेजो की पुलिस तो नही
जो फैला रही है आतंक
हर जन प्रदर्शन का अंत गोली से मौत
यह प्रजातंत्र पर है कलंक
भले ही प्रशासन मौन रहे
पर सामने है प्रश्न अनंत

नेता और आक्रोशित जनता के बीच
पुलिस क्यो बनती दीवार
एक बार हट कर देख ले
आ जायेगा बडा सुधार

तभी मिलेंगे उसे जनता से पूरे अंक
हर जन प्रदर्शन का अंत गोली से मौत
यह प्रजातंत्र पर है कलंक
भले ही प्रशासन मौन रहे
पर सामने है प्रश्न अनंत

चन्द रुपये का मुआवजा देते
नेता यदि एक बार
इतने मुआवजे पर ही
जान देने को हो जाये तैयार

तो अग्रिम भुगतान कर
मिटा देंगे समाज से ये पंक
हर जन प्रदर्शन का अंत गोली से मौत
यह प्रजातंत्र पर है कलंक
भले ही प्रशासन मौन रहे
पर सामने है प्रश्न अनंत

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

आँसू नियमगिरि के

क्या तुमने देखे है

आँसू नियमगिरि के

उसकी समस्याऍ और

भय नियमगिरि के

पुराने जंगलो को काटना आसान है

पर एक पेड लगाना मुश्किल

जंगल लगा पाना असम्भव है

समझना नही इसे जटिल

मानव के तो बहुत से नेता है

कानूनी न्यायालयो मे

पर माँ प्रकृति अकेली है

यह सही नही कही से

हम कितना खोयेंगे

गिरि के खनन से

कोई नही जानता

जाना नही इसे किसी ने मन से

कौन इससे लाभ पायेगा

केवल चन्द लोग

यह जग की रीत है

कुछ ही करे सदा भोग

चलो कुछ करे और लौटाए

उत्साह के पल नियमगिरि के

क्या तुमने देखे है

आँसू नियमगिरि के

उसकी समस्याऍ और

भय नियमगिरि के

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Tears of Niyamgiri


Have you ever seen the

Tears of Niyamgiri

The problems and

Fears of Niyamgiri

Its easy to fell the old forests

But difficult to plant a tree

And impossible to grow forest

You will also agree

We have many representatives

For human in court of justice

But no one to represent Mother Nature

It is not fair practice

How much will we loose

By digging the hill

No one knows

As no one tried to fill (inventories)

Who will be benefited from this destruction

Only few, very few

But such destructions are

Not new

Lets do something to return back the

Cheers of Niyamgiri

Have you ever seen the

Tears of Niyamgiri

The problems and

Fears of Niyamgiri

Pankaj Oudhia ‘Dard Hindustani’


Blog on Niymagiri Biodiversity http://niyamgiri-biodiversity.blogspot.com/

Saturday, June 9, 2007

पर उससे क्या

मनमोहन मजे से सरकार चला रहे है

देश को सुपर पावर बना रहे है

पर उससे क्या

बेरोजगारी से युवाओ के जीवन-स्वप्न

बिखरते जा रहे है

मच्छर तो बढते जा रहे है।

मेरे देशवासी

मलेरिया और डेंगू से मरते जा रहे है॥

वैज्ञानिक भी बढ रहे है

और हो रहे है महंगे शोध

विदेशो की य़ात्राऐ हो रही

नही कोई अवरोध

पर उससे क्या

भारी कर्ज किसानो का जीवन


हरते जा रहे है

मच्छर तो बढते जा रहे है।

मेरे देशवासी

मलेरिया और डेंगू से मरते जा रहे है॥

अमीरो के महंगे घरो और कारो

से भरे पडे है सम्वाद माध्यम

खूब विज्ञापन मिलते है

रुतबा भी नही कम

पर उससे क्या

आम लोग अब भी

सही न्याय की गुहार करते जा रहे है।

मच्छर तो बढते जा रहे है।

मेरे देशवासी

मलेरिया और डेंगू से मरते जा रहे है॥

एडस क़ॆ ळिय़ॆ

पैसॉ की भरमार है

महंगी दवाओ का

लगा अम्बार है

पर उससे क्या

गरीब अभी भी दो जून की रोटी

के लिये तरसते, तडपते जा रहे है।

मच्छर तो बढते जा रहे है।

मेरे देशवासी

मलेरिया और डेंगू से मरते जा रहे है॥

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Thursday, June 7, 2007

“जरा भी समझदारी नही दिखाई देती”

विदेशो से गेहूँ मंगवाये
पर करे रतनजोत की खेती
इसमे तो जरा भी समझदारी
नही दिखाई देती

उर्वरको पर रियायत दे
और करे बात जहर मुक्त उत्पादन की
पराजीनी फसल को छूट दे
और करे बात स्वदेशी अन्न की

यह भ्रम कैसा,
क्यो नही संस्थाऍ गल्तियो से सबक लेती

विदेशो से गेहूँ मंगवाये
पर करे रतनजोत की खेती
इसमे तो जरा भी समझदारी
नही दिखाई देती

क़िसानो के देश मै
किसानो का कोई हित ना सोचे
कोई नही जो आगे आकर
उनके आँसू पोछे

उनके लिये,
उल्टी है सभी नीति

विदेशो से गेहूँ मंगवाये
पर करे रतनजोत की खेती
इसमे तो जरा भी समझदारी
नही दिखाई देती

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Wednesday, June 6, 2007

मै भी इंसान हूँ

किसान मेलो मे

भीड बढाता

जिसे सपने

हर कोई दिखाता

मै भारत का किसान हूँ।

समझो मेरी व्यथा

मै भी इंसान हूँ॥

चार किताबे देखकर बना वैज्ञानिक,

मेरे सामने इठलाता

आलसी कह मेरा

मजाक उडाता

उसके बोलकर, मेहनत से ज्यादा

कमा लेने से मै हैरान हूँ

मै भारत का किसान हूँ।

समझो मेरी व्यथा

मै भी इंसान हूँ॥

हर कोई नयी फसल

मेरे सामने डाल जाता

और मेरी खेती को,

गलत बताता

जैसे मै उनकी तरह

हकीकत से अंजान हूँ

मै भारत का किसान हूँ।

समझो मेरी व्यथा

मै भी इंसान हूँ॥

“जय जवान जय किसान”

का नारा दिखलाता

फिर वही नेता

खेतो मे कारखाने

लगवाता

इन आस्तिन के साँपो से

मै परेशान हूँ

मै भारत का किसान हूँ।

समझो मेरी व्यथा

मै भी इंसान हूँ॥

कर्ज मे डूबे भाई को

रोज श्मशान ले जाता

फिर भी कर्ज लेने

सरकारी फरमान आ जाता

इन कर्ज तले दबाने वालो से

हलाकान हूँ

मै भारत का किसान हूँ।

समझो मेरी व्यथा

मै भी इंसान हूँ॥

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

Tuesday, June 5, 2007

गुहार

ओ मौसम विज्ञानी, अबकी बार
चुप ही रहना,
मेघो को बरस जाने दे
फिर कुछ कहना।

तेरा विज्ञान समझ से
परे है
हर बार सफेद झूठ
बहुत परेशान करे है

कठिन है अब और सहना

ओ मौसम विज्ञानी, अबकी बार
चुप ही रहना,
मेघो को बरस जाने दे
फिर कुछ कहना।

बरसो का किसानी ज्ञान
और कहाँ तेरा किताबी ज्ञान
शुक्र मना जो तेरी नासमझी पर
कोई नही देता ध्यान

धरती पुत्रो से बहुत कुछ है
सीखना समझना

ओ मौसम विज्ञानी, अबकी बार
चुप ही रहना,
मेघो को बरस जाने दे
फिर कुछ कहना।

मानव ही नही मेघ भी
कोरी बातो से त्रस्त है
यही कारण है जो पानी वाले भाग
सूखे से ग्रस्त है

मानसूनी फुहारो की अब आने दे रैना

ओ मौसम विज्ञानी, अबकी बार
चुप ही रहना,
मेघो को बरस जाने दे
फिर कुछ कहना।

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

ये SEZ फूलो की नही कांटो की सेज है

क़िसके दिमाग की है यह उपज

या कहे सनक

लोगो के दर्द की जिसे नही समझ

सुने जो सिक्को की खनक

ऐसे विकास से हमे परहेज है

ये SEZ फूलो की नही

कांटो की सेज है

विदेश से पढ कर लौटे,

देश के विनाश का खेल खेले

चलो अब इनसे

देश की डोर ले ले

किसानो के देश मे उनसे ही छल

यह हैरतअंगेज है

ऐसे विकास से हमे परहेज है

ये SEZ फूलो की नही

कांटो की सेज है

क़रोडो के देश मे क्यो,

चन्द लोगो का हित सोचे

क्यो गरीब अब गरीब रहे

और किस्मत को कोसे

वो चंगेज क्या कम था

जो आ गये नये चंगेज है

ऐसे विकास से हमे परहेज है

ये SEZ फूलो की नही

कांटो की सेज है

नेता चुने हम और वो काम करे

किसी और का

पांच साल बाद फिर लौटे,

ऐ मतदाता अब सम्भल जा

बता दे तेरा संकल्प मजबूत

और दिमाग तेज है

ऐसे विकास से हमे परहेज है

ये SEZ फूलो की नही

कांटो की सेज है

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’