केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष
अपने घर का छिन जाना
बहुत दुखदायी है
इस दर्द को वही असल मे जाने
जिसने चोट खायी है
क्यो चन्द सिक्को की चाह मे
गरीबो की बददुआ रहे है समेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष
नियमगिरि हो या नन्दीग्राम
किसान असहाय देख रहे है
नेता तो बस अपनी रोटी
सेंक रहे है
आखिर किस किससे बचे
प्रकृति ने छोडा तो अपनो ने लिया लपेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष
प्रेम और प्रकृति को छोड
चलो अब असल जीवन पर भी लिखे
क्यो न हम कवि
आम लोगो की लडाई मे भी दिखे
ऐसा लिखे कि शोषक़ॉ की जमात
सदा के लिये जाये चेत
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
1 comment:
एक तार्किक प्रस्तुति है…
कविता के माध्यम से समसामायिक विषय की पक्षीय चर्चा हुई है…बधाई स्वीकारे!!!
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