Friday, June 15, 2007

महलो को बना ले खेत

केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

अपने घर का छिन जाना
बहुत दुखदायी है
इस दर्द को वही असल मे जाने
जिसने चोट खायी है

क्यो चन्द सिक्को की चाह मे
गरीबो की बददुआ रहे है समेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

नियमगिरि हो या नन्दीग्राम
किसान असहाय देख रहे है
नेता तो बस अपनी रोटी
सेंक रहे है

आखिर किस किससे बचे
प्रकृति ने छोडा तो अपनो ने लिया लपेट
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

प्रेम और प्रकृति को छोड
चलो अब असल जीवन पर भी लिखे
क्यो न हम कवि
आम लोगो की लडाई मे भी दिखे

ऐसा लिखे कि शोषक़ॉ की जमात
सदा के लिये जाये चेत
केवल घरो और खेतो को तोडकर ही
बन सकते है कारखाने
तो चले महलो को बना ले खेत
जैसे को तैसा
या जैसा देश वैसा भेष

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

1 comment:

Divine India said...

एक तार्किक प्रस्तुति है…
कविता के माध्यम से समसामायिक विषय की पक्षीय चर्चा हुई है…बधाई स्वीकारे!!!