Sunday, June 17, 2007

एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

वो समझते है अच्छा व्यापार
कर रहे है
सच मानो तो आहो से घर
भर रहे है

अगर पैसे मिले तो वे क्लेश और विद्वेष बेचेंगे
सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

करोडो के इस देश मे
क्या कुछ ही करेंगे मजे
आम लोग सडको पर
और अरबो मे सिर्फ एक घर सजे

जाने कब ये बनेंगे सही भारतीय
और प्रेम का सन्देश भेजेंगे
सुना है मोबाइल और पेट्रोल वाले
अब सब्जियाँ ‘फ्रेश’ बेचेंगे
ऐसा ही सब चलता रहा तो
एक दिन ये ‘देश’ बेचेंगे

पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’

3 comments:

विष्णु बैरागी said...

आपकी कविताएं अच्‍छी हैं । इनमें ताजगी भी है और मौजूदा हकीकत भी ।

शुभ-कामनाएं ।

अनुनाद सिंह said...

कविता का शब्द-सौंदर्य की प्रशंशा करता हूँ, किन्तु इसमें व्यक्त भावना से सहमत नहीं हूँ।

कोई भी कार्य संगठित तरीके से करने के कुछ अपने फायदे हैं। जब एक स्थान से रोजगार उजड़ता है तो साथ ही दूसरा रोजगार पैदा करता है। यही विकास का राज है।

Reetesh Gupta said...

हमेशा की तरह आपकी रचनायें देश की समस्याओं के पर प्रहार करतीं हैं ....बधाई