हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?
इस विषय पर पहला आलेख झगडहीन (झगडा कराने वाली) नामक वनस्पति से जुडे विश्वास पर केन्द्रित है। आप इसे संजीव जी के चिठ्ठे ‘आरम्भ’ मे पढ सकते है।
हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?
इस विषय पर पहला आलेख झगडहीन (झगडा कराने वाली) नामक वनस्पति से जुडे विश्वास पर केन्द्रित है। आप इसे संजीव जी के चिठ्ठे ‘आरम्भ’ मे पढ सकते है।
पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
मेरे अपने लोग कभी
सडक चौडी करते
तो कभी फैलने के लिये
दूसरे का जीवन हरते
कितने बार मै बूढे वृक्षो के साथ
नित कटता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पर्यावरण पर लिख कितनो का
जीवन बन गया
विनाश से बचाने वालो का
जंगलो के सीने पर ही तंबू तन गया
कब तक मै औरो की तरह
इन ठगो को सहता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
क्या मेरा लेखन कभी
लालचियो के मन बदल पायेगा
क्या मुँह से पर्यावरण की दुहायी देते
पर कुल्हाडी चलाते हाथो को कुचल पायेगा
या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को
छलता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
घास पर जमी है ओस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
जरा नयी पीढी को भी
ले चले साथ
औ’ बताये कैसे हम पर है
माँ प्रकृति का हाथ
बटोरे इस स्नेह को
बनके मासूम निर्दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
बच्चे जब होंगे बडे तो ओस
तो होगी
पर तब प्रदूषण बना रहा होगा
सब को रोगी
ओस को भी होगा काँक्रीट जंगल
पर गिरने का तब अफसोस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
हम ही है जो गँवाते जा रहे है
वो जो हमारे लिये हितकर है
उसे भी जो हमारे साथ रहने वाले
असंख्य जीवो का घर है
आरोग्य छोड जो हम पीडा को चुने
इसमे प्रकृति का क्या दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
हल्दी से दाँतो की देखभाल आज पढे ज्ञान जी के चिठ्ठे पर
कैसे हल्दी के साधारण प्रयोग से दंत और मुख रोगो से बचा जा सकता है- इस विषय पर जानकारी के लिये आज ज्ञान जी के चिठ्ठे पर पधारे और लाभ प्राप्त करे।
वर्ष 1998 मे अंतरजाल पर भारतीय भाषाओ मे वनस्पतियो के नाम पर तैयार किये गये दस्तावेज
बहुत पहले वर्ष 1998 मे जब वर्तमान हिन्दी चिठ्ठाजगत उतना अधिक सक्रिय नही था तब मैने आस्ट्रेलिया के एक प्रोजेक्ट के लिये कुछ भारतीय वनस्पतियो के विभिन्न भाषाओ मे नाम उपलब्ध करवाये थे। उस समय कम्प्यूटर से टाइप करके दस्तावेजो को डाक से आस्ट्रेलिया भेजना पडता था फिर वहाँ इसे स्कैन करके वेबसाइट पर डाला जाता था। बडा ही धीमा कार्य था। आज सब कुछ इतना आसान हो जाने के कारण हम इसका महत्व न समझ पाये पर मुझे लगा कि आप सब को इसके विषय मे बताया जाये। नीचे कडियो मे इस प्रोजेक्ट मे मेरे योगदान की कडियाँ देख सकते है। दूसरी कडी को खोलने के बाद आराम से नीचे तक सरकाये तब मेहनत को जान पायेंगे।
http://www.plantnames.unimelb.edu.au/Sorting/Ficus.html
जलवायु परिवर्तन जाने कब से हो रहा
जलवायु परिवर्तन जाने कब से हो रहा
पर उसकी राजनीति शुरू हुयी है अब
हर दशक नये शब्द, डराने का नया तरीका
बडे देश सुधरेंगे कब
अपना दामन मैला जिन्हे नही दिखता
वो दूसरो को दोषी मानते है
कैसे आम लोगो को बनाये बेवकूफ
यह अच्छे से जानते है
नियमगिरि पर जब खदानो की अनुमति मिलती
या बस्तर की जैव-विविधता पडती जब खतरे मे
तब तो नही होती बात जलवायु परिवर्तन की
मजे करते है विशेषज्ञ एसी कमरे मे
करोडो साल से बन-बिगड रही दुनिया
क्या सौ साल मे ही इतनी बदल गई
ये वैज्ञानिक आँकडे है उनके मतलब के
इस पर छल, नही बात नई
अंग्रेजो ने जब जंगल काटे, सडके बनवायी
तब न हुआ जलवायु परिवर्तन?
जिस घर मे बैठकर यह कविता पढते हो
क्या उसके निर्माण मे नही आहत हुआ प्रकृति का तन?
भारत पर जलवायु परिवर्तन का दोष मढने वाली
समिति का मुखिया भारतीय है
अफसोस है धिक्कार है
बडे देशो को गलत समर्थन निन्दनीय है
जलवायु परिवर्तन की बात तो सब करते पर
इंसानी परिवर्तन की बात कोई न करे
यदि इंसान सुधरे तो सब सुधरे
प्रकृति फिर अपना असली रूप धरे
हम ही करते गलती
जानते हुये सच सब
जलवायु परिवर्तन जाने कब से हो रहा
पर उसकी राजनीति शुरू हुयी है अब
हर दशक नये शब्द, डराने का नया तरीका
बडे देश सुधरेंगे कब
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
क्यो बात-बात पर पर्यावरण सुरक्षा की बात करते हो
कागज बनाते
फिर उसी पर लेख छाप
पेडो का महत्व बताते
क्यो ऐसा दोहरा चरित्र धरते हो
क्यो बात-बात पर
पर्यावरण सुरक्षा की बात करते हो
सब कुछ भूलकर दीपावली पर
करोडो का शोर फैलाते
घर जंगल ही नही फेफडे भी
धुए से भर जाते
बूढो से लेकर रोगियो का चैन हरते हो
क्यो बात-बात पर
पर्यावरण सुरक्षा की बात करते हो
अपनी करतूतो को छिपा
इसे दुनिया के मौसम का बदलाव बताते
बडे सम्मेलन कर
बचाव के उपाय सुझाते
थोडी तरक्की मे बल पर क्यो
विधाता होने का दम्भ भरते हो
क्यो बात-बात पर
पर्यावरण सुरक्षा की बात करते हो
जंगलो को काटकर घर बनाते
फिर कारखानो से प्रदूषण उगलवाते
रसायन डालकर फसल उगाते
फिर अपने वाहन के लिये जहर फैलाते
विविधता की बात करते पर धरती पर
अकेले ही पसरते हो
क्यो बात-बात पर
पर्यावरण सुरक्षा की बात करते हो
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
पिछले कुछ वर्षो से छत्तीसगढी-अंग्रेजी तकनीकी शब्दकोष के विकास मे लगा हूँ। इसका कुछ भाग अंतर जाल पर उपलब्ध है। इस दुस्साहस के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ क्योकि परम्परा के अनुसार स्थापित भाषा विशेषज्ञ ही यह कार्य करते है फिर उन्हे बडे सम्मानो से नवाजा जाता है। यह शब्दकोष अपने आप मे अनूठा इसलिये है कि इसमे विषय पर ढेरो छायाचित्र भी उपलब्ध है। जैसे भर्री शब्द ही ले। इसका तकनीकी अर्थ अंग्रेजी मे तो उपलब्ध है ही साथ मे यदि आप कैमरे के निशान को क्लिक करेंगे तो आपको भर्री के 35 रंगीन चित्र भी दिखाई पडेंगे।
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61811&viewType=F
इसके अलावा where used वाली चाबी दबाने पर भर्री पर केन्द्रित शोध आलेख भी पढने को मिलेंगे। ऐसे ही बियारा शब्द मे आपको उसके 27 चित्र दिखेंगे।
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61410&viewType=F
दातौन शब्द मे तो ढेरो चित्र के अलावा दसो लेख पढने मिलेंगे।
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61631&viewType=F
इस शब्दकोष मे पारम्परिक व्यंजनो की जानकारी भी उपलब्ध है। जैसे आम से बनने वाले गुराम को ही ले।
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61849&viewType=F
या फिर खुरमी को देखे
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61579&viewType=F
इसमे उतेरा जैसे खेती से सम्बन्धित शब्द भी है।
http://ecoport.org/ep?searchType=glossaryShow&glossaryId=61813&viewType=F
सूचना
किसानो के लिये निशुल्क सलाह का नियमित स्तम्भ अब अंतरजाल पर
भारतीय किसान विशेषकर औषधीय एवम सगन्ध फसलो की खेती कर रहे किसान अब सीधे ही विशेषज्ञ से जानकारी प्राप्त कर सकते है। न्यूज विंग नामक वेबसाइट पर एक विशेष साप्ताहिक स्तम्भ आरम्भ किया गया है। विस्तार के लिये इस कडी पर जाये।
क्या झारखन्ड के किसान औषधीय फसल भी उगा सकते है?
अब भूलकर भी दुश्मन को गुबरैला न कहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
हमारे ही कारण सारे जंगल
लीदो से मुक्त है
देखो जरा अपने आस-पास
सारा आलम मैले से युक्त है
हमने जो छोड दिया है
शहरो मे रहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
अब सारी दुनिया हमारी उपयोगिता
समझ रही है
बिना वेतन, बिना हडताल वाले सफाई कर्मियो की माँग
हर कही है
हम काम करते अनवरत
बारहो महिना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
छैल-छबीले
हम गुबरैले रंगीले
हम सा परम संतोषी
खोजने पर भी न मिले
हमसे सीखो जीवन सरिता मे
मस्ती से बहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
गुबरैला को डंग-बीटल्स के नाम से दुनिया जानती है। ये प्रकृति के सफाई कर्मचारी है जिन्हे हमने अपने शहरो से निकाल बाहर किया है। अब हमारे शहर मैलो से भर गये है। विदेशो मे लोग अब जाग रहे है। गुबरैलो की सहायता से शहर साफ करने की योजना बन रही है। इसी पर केन्द्रित यह कविता है। हम सब कितने अंजान है इस सब से, है ना?
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
मेरे घर आना उडन तश्तरी
(नयी पंक्तियो के साथ)
मैने विचारो का घरौन्दा बनाया है
नारद, ब्लागवाणी और चिठ्ठाजगत मे
पंजीयन कराया है
अब टिप्पणियो से उसे सजाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
जानता हूँ तुम हो आवारा-बंजारा
फिर भी चाहो तो ज्ञान जी की लोह पथ गमन-गामिनी
इंतजार कर रही तुम्हारा
न बनाना कोई बहाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
जानता हूँ तुम नही हो फुरसतिया
पर फिर भी आ जाओ तो हो जाये
दिल की बतिया
अपने साथ वो चश्मा जरूर लाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम सारथी, तुम सृज़न शिल्पी
तुम बोधिसत्व से
प्रेरणादायक भी
तुम बिन चिठ्ठाजगत वीराना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम ही रवि, तुम ही नीरज
शांत ऐसे कि कभी न खोते धीरज
हमे भी अपने जैसा बनाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम उन्मुक्त, तुम सागर
तुम मन के आलोक
सीधी तुम्हारी डगर
ऐसे ही हिन्दी की अलख सदा जगाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम टिप्पणीकार टिप्पणी मानो
तुम्हारी रचना
आता है तुम्हे आरम्भ ही से
विवादो से बचना
प्रेम की गंगा ऐसे ही बहाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
गन्दगी के सफाई करते जैसे तुम काकेश
तुमसे ही हमारा विकास
तुम अविनाश, कभी ने निकालते
अपनी भडास
दीर्घायु हो पर इसके लिये वजन घटाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
घुघूती से तुम आजाद
नव-अंकुर से ऊर्जावान
तुमसे रौशन कस्बा हमारा
तुम गुणो की खान
ऐसे ही सदा यश कमाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
जैसे ही आती नयी पोस्ट जान जाता यह
तुम्हारा मन संजय
रघु से समर्पित
बिल्कुल निर्भय-अभय
अपना समझना हमे, मन की बात न छुपाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
उडन तश्तरी
http://udantashtari.blogspot.com/
नारद
ब्लागवाणी
चिठ्ठाजगत
आवारा-बंजारा
ज्ञान जी
फुरसतिया
नीरज
रवि
http://raviratlami.blogspot.com
उन्मुक्त
सागर
आलोक
सारथी
सृज़न शिल्पी
बोधिसत्व
रचना
http://www.blogger.com/profile/15393385409836430390
अविनाश
http://www.blogger.com/profile/05081322291051590431
टिप्पणीकार
विकास
भडास
घुघूती
आरम्भ
संजय
http://www.blogger.com/profile/07302297507492945366
अभय
http://www.blogger.com/profile/05954884020242766837
रघु
कस्बा
अंकुर
काकेश
खान
मेरे घर आना उडन तश्तरी
मैने विचारो का घरौन्दा बनाया है
नारद, ब्लागवाणी और चिठ्ठाजगत मे
पंजीयन कराया है
अब टिप्पणियो से उसे सजाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
जानता हूँ तुम हो आवारा-बंजारा
फिर भी चाहो तो ज्ञान जी की लोह पथ गमन-गामिनी
इंतजार कर रही तुम्हारा
न बनाना कोई बहाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
जानता हूँ तुम नही हो फुरसतिया
पर फिर भी आ जाओ तो हो जाये
दिल की बतिया
अपने साथ वो चश्मा जरूर लाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम सारथी, तुम सृज़न शिल्पी
तुम बोधिसत्व से
प्रेरणादायक भी
तुम बिन चिठ्ठाजगत वीराना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम ही रवि, तुम ही नीरज
शांत ऐसे कि कभी न खोते धीरज
हमे भी अपने जैसा बनाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
तुम उन्मुक्त, तुम सागर
तुम मन के आलोक
सीधी तुम्हारी डगर
ऐसे ही हिन्दी की अलख सदा जगाना उडन तश्तरी
मेरे घर आना उडन तश्तरी
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
http://udantashtari.blogspot.com/
नारद
ब्लागवाणी
चिठ्ठाजगत
आवारा-बंजारा
ज्ञान जी
फुरसतिया
नीरज
रवि
http://raviratlami.blogspot.com
उन्मुक्त
सागर
आलोक
सारथी
सृज़न शिल्पी
बोधिसत्व
सब मिलकर उन्हे कोसे
चलो खोजे
उसे जिसने
प्लास्टिक बनाया
उसे भी जिसने इसे
अच्छा बताया
और उसे भी जिसने इसे
घर-घर तक पहुँचाया
सब मिलकर उन्हे कोसे
फिर कडी सजा दिलाने की सोचे
चलो खोजे
ये कैसी उल्टी
बात है
हर बुरी चीज परोसी जाती ऐसे
जैसे सौगात है
शराब, सिगरेट, प्लास्टिक,
गुटखा-----
जाने क्या-क्या
फिर पीढीयो तक वह
हमे बरबाद करती
रोगो और रोगियो से पट
रही ये धरती
चलो दुखी परिवारो के आँसू पोछे
और उनसे निपटे
जो है ओछे
सब मिलकर उन्हे कोसे
फिर कडी सजा दिलाने की सोचे
चलो खोजे
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
मुझे भी तो जीवन से प्यार है
मेरा जीवन बरबाद करके
आपस मे प्रेम बाँटते हो
हर दशहरे मे मुझे छाँटते कम
ज्यादा काटते हो
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
साल भर मै तुम्हारे लिये
प्राणवायु देती
तुम्हारे द्वारा फैलाये जा रहे
प्रदूषण को सोख लेती
अहसानो को भूलने का सदा से
तुझमे विकार है
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
नष्ट करना ही है तो
नुकसान करने वालो को उखाडो
बाहर से आए खतरनाक खरपतवारो को
इस नये ढंग से मारो
क्यो नही आता मन मे
ऐसा विचार है
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
देश के बहुत से भागो मे यह परम्परा है कि रावण वध के बाद लूटे गये सोने के प्रतीक के रूप मे पेड की पत्तियाँ आपस मे बाँटी जाती है। छत्तीसगढ मे ‘सोन-पत्ता’ आपस मे दिया जाता है। यह कचनार की पत्तियाँ है। पहले जब हम लोगो की आबादी कम थी तब इसकी कटाई-छटाई अच्छी मानी जाती थी। दशहरे के नाम से लोग इस जंगली वृक्ष की काट-छाँट कर लेते थे। पर अब जब हम बहुत बढ गये है बढती माँग के कारण बडी बेहरमी से इन्हे काटा-छाँटा जाता है। बहुत से वृक्ष मर जाते है। हमारा पर्व उनके लिये जानलेवा साबित हो रहा है। इसलिये यह कविता लिखी गई है। यह भी सुझाव दिया गया है कि यदि नुकसान पहुँचाने वाले विदेशी खरपतवारो का इस तरह हम उपयोग करे तो हमारा पर्व भी मन जायेगा और नुकसानदायक पौधे भी मर जायेंगे।
उपन्यास : प्रथम किश्त
विशु
- पंकज अवधिया
‘उसने ज्योतिषियो से मदद मांगी तो रत्न सुझा दिये गये। हजारो बहाये गये पर नतीजा सिफर ही रहा। फिर किसी ने सिद्ध बाबा से मिलने की बात कही। विशु ने अपनी माँ को जब उनसे मिलवाया तो बिना कुछ जाने वे बोल पडे ‘यह रोग तो किसी दुखी मन से निकली आह के कारण ही हो सकता है। क्या तूने किसी का दिल दुखाया है?’ अनोखी ने कहा ‘नही तो।‘ तो बाबा बस मुस्कुरा दिये।‘
इसी उपन्यास से
पूरा यहाँ पर पढे
बहुत हो गया अब न चुप रहूँगी
जाना न समझा मुझे
बस शोषक कह दिया
सदा बुरा कहा और लिखा
जैसे मैने कभी भला न किया
दूसरो के दिल को दुखाना
तुम्हारे लिये है खेल
बहुत हो गया अब न चुप रहूँगी
मै अमरबेल
आखिर मै भी हूँ
प्रकृति की बेटी
लौटाती वो सब कुछ
जो उससे लेती
फिर अनचाहा कहकर बागीचे से बाहर
क्यो देते हो ढकेल
बहुत हो गया अब न चुप रहूँगी
मै अमरबेल
भले ही मै तुम्हारी फसलो को
खाती हूँ
पर कई खरपतवारो को भी तो
ठिकाने लगाती हूँ
मै हूँ अनोखी, किसी से नही है
मेल
बहुत हो गया अब न चुप रहूँगी
मै अमरबेल
शोषण के खिलाफ आवाज
उठाते हो
तो फिर क्यो नही मेरी मदद को सामने
आते हो
आओ और कसो, मुझे बुरा कहने वाले
साहित्यकारो की नकेल
बहुत हो गया अब न चुप रहूँगी
मै अमरबेल
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित
अमरबेल नामक परजीवी वनस्पति को हम सब जानते है। बचपन से ही उसके नकारात्मक पहलुओ के बारे मे बताकर हमारे मन मे तरह-तरह की बाते भर दी जाती है। पर अमरबेल ने मानव जाति की भलाई मे अमूल्य योगदान दिया है। दुनिया भर मे बतौर दवा इसका प्रयोग होता है। कई जीवन रक्षक दवाए इससे बनायी जाती है। हमारे देश के पारम्परिक चिकित्सक सदियो से यह जानते है कि अमरबेल अन्य वनस्पतियो से पोषक तत्व के अलावा औषधीय तत्व भी लेती है। मान लीजिये यदि अमरबेल बेर के पेड से एकत्र की जाती है तो उसमे बेर से अधिक औषधीय गुण होते है। आधुनिक विज्ञान अब इसे समझ पा रहा है।
अरे कोई तो मुझे बचा लो
सदियो से तुम्हे ह्रदय रोगो से
बचाया
जब चिंतित दिखे
चैन की नीन्द सुलाया
फिर भी कर रहे हो
काम यह गन्दा
अरे कोई तो मुझे बचा लो
मै हूँ सर्पगन्धा
असंख्य थे हम कभी
वनो मे
पर उखाडकर बेचा हमे
मनो मे
दूसरो का जीवन जो छीन ले
भला यह कैसा है धन्धा
अरे कोई तो मुझे बचा लो
मै हूँ सर्पगन्धा
सरकार ने प्रतिबन्ध लगा
कुछ राहत पहुँचाई
पर फिर भी मै बिकती हूँ
यह है रिश्वतखोरो की बेहयाई
हम मिट गये धरती से तो सोच तेरा क्या होगा
मत बन लालच मे अन्धा
अरे कोई तो मुझे बचा लो
मै हूँ सर्पगन्धा
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित
सर्पगन्धा जग-प्रसिध्द औषधीय वनस्पति है जो आधुनिक और प्राचीन सभी चिकित्सा पध्दतियो मे प्रयोग होती है। पहले यह भारतीय वनो मे प्रचुरता से उगती थी पर अविवेकपूर्ण दोहन से अब इसका अस्तित्व खतरे मे है। प्रतिबन्ध के बावजूद यह बाजार मे खुलेआम बिकती है। विशेषज्ञ तो इस तथ्य को अच्छे से जानते है पर आम लोगो तक इस बात को पहुँचाने के लिये मैने कविता का माध्यम चुना है।