Monday, December 24, 2007

पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा


मेरे अपने लोग कभी

सडक चौडी करते

तो कभी फैलने के लिये

दूसरे का जीवन हरते


कितने बार मै बूढे वृक्षो के साथ

नित कटता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

पर्यावरण पर लिख कितनो का

जीवन बन गया

विनाश से बचाने वालो का

जंगलो के सीने पर ही तंबू तन गया


कब तक मै औरो की तरह

इन ठगो को सहता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

क्या मेरा लेखन कभी

लालचियो के मन बदल पायेगा

क्या मुँह से पर्यावरण की दुहायी देते

पर कुल्हाडी चलाते हाथो को कुचल पायेगा


या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को

छलता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

पंकज अवधिया दर्द हिन्दुस्तानी

© सर्वाधिकार सुरक्षित

7 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

मेरे विचार से सब कुछ संवेदना से नहीं अर्थशास्त्र से तय हो रहा है। हमें पर्यावरण संरक्षण को अर्थशास्त्र से जोड़ना चाहिये। यह अप्रिय लगता है। कुछ हद तक भोण्डा भी। पर दूरगामी वही होगा जो अर्थशास्त्र पर खरा उतरेगा।

नीरज गोस्वामी said...

पंकज जी
आप का दर्द हर उस हिन्दुस्तानी का दर्द है जो अपने सामने ही हरियाली को सिक्कों में बिकता देखने को मजबूर है. जब तक आम इंसान इसके ख़िलाफ़ नहीं बोलता तब तक इसका रुकना मुश्किल है. आम इंसान इस से तब जुडेगा जब उसको रोटी कपड़े और मकान की चिंता से मुक्ति मिलेगी. जो वर्तमान में सम्भव नज़र नहीं आती.
नीरज

मीनाक्षी said...

पंकज जी, आप लिखते रहिए क्यों कि एक अन्धेरे भवन एक दिया भी बहुत होता है उजाला करने के लिए...! कोई एक भी आपको पढ़कर अगर इस बात को सोचते हुए अपने घर से ही पर्यावरण की रक्षा करने को सोचने लगे तो बहुत कुछ बदल सकता है...

Shastri JC Philip said...
This comment has been removed by the author.
Shastri JC Philip said...

"या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को
छलता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा"

आप के लिखने का असर हो रहा है. लिखते रहें.

कल हमारे आंगन में मिट्टी में दबे 4 अंडे मिले. यहां सापों की भरमार है. अनुमान है कि ये सांप के अंडे हैं. इसके बावजूद हम ने उनको ध्यान से ढांक दिया और अब पहरेदारी कर रहे हैं. प्रकृति के संतुलन के लिये एक छोटी सी सेवा!!

आप जैसे लोगों का असर है जो मेरे परिवार में सब प्रकृति के प्रति सजग हैं.

लिखते रहें, असर जरूर होगा. हो रहा है!!

शोभा said...

पंकज जी
आपकी कविता पढ़ी। आपकी लेखनी बहुत सशक्त है । बहुत सुन्दर लिखा है । हृदय का दर्द उभर कर आया है । बहुत अच्छे । लिखते रहें । सस्नेह

Anita kumar said...

जब तक आम जनता मौन धारण कर अपनी रोजी रोटी से ऊपर नहीं उठेगी तब तक आप और आप जैसे पर्यावरण के प्रति सजग और लोग यूं ही हर पेड़ के साथ कटते रहेगें। जब तक कोई राह दिखाने वाला नहीं मिलता तब तक हम सब यूं ही मौन धारण किए रहेगें।