पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
मेरे अपने लोग कभी
सडक चौडी करते
तो कभी फैलने के लिये
दूसरे का जीवन हरते
कितने बार मै बूढे वृक्षो के साथ
नित कटता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पर्यावरण पर लिख कितनो का
जीवन बन गया
विनाश से बचाने वालो का
जंगलो के सीने पर ही तंबू तन गया
कब तक मै औरो की तरह
इन ठगो को सहता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
क्या मेरा लेखन कभी
लालचियो के मन बदल पायेगा
क्या मुँह से पर्यावरण की दुहायी देते
पर कुल्हाडी चलाते हाथो को कुचल पायेगा
या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को
छलता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
7 comments:
मेरे विचार से सब कुछ संवेदना से नहीं अर्थशास्त्र से तय हो रहा है। हमें पर्यावरण संरक्षण को अर्थशास्त्र से जोड़ना चाहिये। यह अप्रिय लगता है। कुछ हद तक भोण्डा भी। पर दूरगामी वही होगा जो अर्थशास्त्र पर खरा उतरेगा।
पंकज जी
आप का दर्द हर उस हिन्दुस्तानी का दर्द है जो अपने सामने ही हरियाली को सिक्कों में बिकता देखने को मजबूर है. जब तक आम इंसान इसके ख़िलाफ़ नहीं बोलता तब तक इसका रुकना मुश्किल है. आम इंसान इस से तब जुडेगा जब उसको रोटी कपड़े और मकान की चिंता से मुक्ति मिलेगी. जो वर्तमान में सम्भव नज़र नहीं आती.
नीरज
पंकज जी, आप लिखते रहिए क्यों कि एक अन्धेरे भवन एक दिया भी बहुत होता है उजाला करने के लिए...! कोई एक भी आपको पढ़कर अगर इस बात को सोचते हुए अपने घर से ही पर्यावरण की रक्षा करने को सोचने लगे तो बहुत कुछ बदल सकता है...
"या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को
छलता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा"
आप के लिखने का असर हो रहा है. लिखते रहें.
कल हमारे आंगन में मिट्टी में दबे 4 अंडे मिले. यहां सापों की भरमार है. अनुमान है कि ये सांप के अंडे हैं. इसके बावजूद हम ने उनको ध्यान से ढांक दिया और अब पहरेदारी कर रहे हैं. प्रकृति के संतुलन के लिये एक छोटी सी सेवा!!
आप जैसे लोगों का असर है जो मेरे परिवार में सब प्रकृति के प्रति सजग हैं.
लिखते रहें, असर जरूर होगा. हो रहा है!!
पंकज जी
आपकी कविता पढ़ी। आपकी लेखनी बहुत सशक्त है । बहुत सुन्दर लिखा है । हृदय का दर्द उभर कर आया है । बहुत अच्छे । लिखते रहें । सस्नेह
जब तक आम जनता मौन धारण कर अपनी रोजी रोटी से ऊपर नहीं उठेगी तब तक आप और आप जैसे पर्यावरण के प्रति सजग और लोग यूं ही हर पेड़ के साथ कटते रहेगें। जब तक कोई राह दिखाने वाला नहीं मिलता तब तक हम सब यूं ही मौन धारण किए रहेगें।
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