Friday, June 27, 2008

एक बार किसानो पर लिख कर उन्हे भूल गये












एक बार किसानो पर लिख कर

उन्हे भूल गये

जाने कितने किसान अब तक

कर्ज के फन्दे मे झूल गये


अब बस भी करो चन्द पंक्तियाँ लिखकर

कर्तव्यो की इतिश्री करना

अन्नदाता का मरना है

एक देश का मरना


सो रहा सत्तापक्ष और इस देश का

विपक्ष भी

हर समस्या मे दिखती उन्हे

राजनीति ही


देश के व्यापारी अब

कर रहे है खेती

आम लोग का पेट नही

बस अपनी गाडी दिखायी देती


मेरे देश की धरती

सोना उगले

और मुठ्ठी भर लोग

इसे निगले


अरबो के बंगले मे रहने की खबरे

छपवाने वालो

या हेलीकाप्टर पर जनता का पैसा

बहाने वालो


या बात-बात पर एसएमएस

करने वालो

कुछ तो दिल अपना

खोलो

देश हुआ अन्धेर नगरी और

राजा चौपट भये

जाने कितने किसान अब तक

कर्ज के फन्दे मे झूल गये


एक बार किसानो पर लिख कर

उन्हे भूल गये

जाने कितने किसान अब तक

कर्ज के फन्दे मे झूल गये

पंकज अवधिया दर्द हिन्दुस्तानी

© सर्वाधिकार सुरक्षित

आप आये इसके लिये आभार। कृपया टिप्पणी न करे। यदि किसानो के प्रति कुछ करना चाहते है तो राजनेताओ और योजनाकारो पर दबाव बनाये, दलगत राजनीति से उठकर क्योकि अन्नदाता किसी दल विशेष के लिये अन्न नही उपजाते और रोटी की कोई पार्टी नही होती। अब समय आ गया है कि पीढीयो के कर्ज को उतारकर किसानो को कर्ज से मुक्ति दिलाने का।


क्या आप किसी ऐसी संस्था को जानते है जो दानदाताओ और किसानो के बीच सेतु बन सके। बहुत से लोग है जो किसानो को सीधे मदद करना चाहते है पर कैसे उन तक पहुँचे यह नही समझ पाते है? क्या सरकार किसानो को दी जाने वाली सीधी मदद को टैक्स फ्री करेगी या कुछ रियायत देगी? क्या किसानो की सूची, उन पर कर्ज और उनके पते का ब्यौरा कही से मिल सकेगा?

चलिये, कविता पर पहली प्रतिक्रिया के तहत किसानो को दस हजार रुपये देने की इच्छा एक पाठक ने जतायी है पर वे पूछ रहे है कि इस दिशा मे कैसे बढा जाये? धन्यवाद। आपके सुझाव आमंत्रित है।






1 comment:

Ashok Pandey said...

भाई पंकज अवधिया जी,
जबरिया टिप्‍पणी कर रहा हूं, क्षमा करेंगे।

आपकी कविता पूरी की पूरी हकीकत बयां कर देती है। कोटिश: धन्‍यवाद।

जो खुद अन्‍नदाता है, उसे कोई दान क्‍या दे सकता है। फिर यह समस्‍या का स्‍थायी निदान भी नहीं। किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्‍य मिल जाये तो उन्‍हें कुछ भी नहीं चाहिये।

आज का‍ स्‍वार्थलोलुप मीडिया तो किसानों के प्रति संवेदशून्‍य हो चुका है। लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ के तथाकथित पहरुओं की संवेदना वहीं जगती है, जहां उन्‍हें कोई स्‍वार्थ दिखता है। ऐसे समय में आप जैसे लोग किसानों के प्रति इतनी हमदर्दी रखते हैं, उनके लिये कुछ करना चाहते हैं, यह कम नहीं है।