अब भूलकर भी दुश्मन को गुबरैला न कहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
हमारे ही कारण सारे जंगल
लीदो से मुक्त है
देखो जरा अपने आस-पास
सारा आलम मैले से युक्त है
हमने जो छोड दिया है
शहरो मे रहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
अब सारी दुनिया हमारी उपयोगिता
समझ रही है
बिना वेतन, बिना हडताल वाले सफाई कर्मियो की माँग
हर कही है
हम काम करते अनवरत
बारहो महिना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
छैल-छबीले
हम गुबरैले रंगीले
हम सा परम संतोषी
खोजने पर भी न मिले
हमसे सीखो जीवन सरिता मे
मस्ती से बहना
अब भूलकर भी दुश्मन को
गुबरैला न कहना
वो तो खुश होगा और
जलन के दंश तुम्हे होगा सहना
गुबरैला को डंग-बीटल्स के नाम से दुनिया जानती है। ये प्रकृति के सफाई कर्मचारी है जिन्हे हमने अपने शहरो से निकाल बाहर किया है। अब हमारे शहर मैलो से भर गये है। विदेशो मे लोग अब जाग रहे है। गुबरैलो की सहायता से शहर साफ करने की योजना बन रही है। इसी पर केन्द्रित यह कविता है। हम सब कितने अंजान है इस सब से, है ना?
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
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1 comment:
गुबरैला तो मुझे बचपन से आकर्षित करता रहा है - भले ही गोबर(?) से जुड़ा रहा हो। लगता है इस बरे में मैं आपके राइट साइड में हूं।
इसी तरह जब गिद्ध खतम हो कर आदमी गिद्ध बनने लगे तो कष्ट होने लगा है। कभी उनपर भी कविता ठेलिये!
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