मुझे भी तो जीवन से प्यार है
मेरा जीवन बरबाद करके
आपस मे प्रेम बाँटते हो
हर दशहरे मे मुझे छाँटते कम
ज्यादा काटते हो
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
साल भर मै तुम्हारे लिये
प्राणवायु देती
तुम्हारे द्वारा फैलाये जा रहे
प्रदूषण को सोख लेती
अहसानो को भूलने का सदा से
तुझमे विकार है
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
नष्ट करना ही है तो
नुकसान करने वालो को उखाडो
बाहर से आए खतरनाक खरपतवारो को
इस नये ढंग से मारो
क्यो नही आता मन मे
ऐसा विचार है
ये कैसा व्यवहार है?
मुझे भी तो जीवन से प्यार है।
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
देश के बहुत से भागो मे यह परम्परा है कि रावण वध के बाद लूटे गये सोने के प्रतीक के रूप मे पेड की पत्तियाँ आपस मे बाँटी जाती है। छत्तीसगढ मे ‘सोन-पत्ता’ आपस मे दिया जाता है। यह कचनार की पत्तियाँ है। पहले जब हम लोगो की आबादी कम थी तब इसकी कटाई-छटाई अच्छी मानी जाती थी। दशहरे के नाम से लोग इस जंगली वृक्ष की काट-छाँट कर लेते थे। पर अब जब हम बहुत बढ गये है बढती माँग के कारण बडी बेहरमी से इन्हे काटा-छाँटा जाता है। बहुत से वृक्ष मर जाते है। हमारा पर्व उनके लिये जानलेवा साबित हो रहा है। इसलिये यह कविता लिखी गई है। यह भी सुझाव दिया गया है कि यदि नुकसान पहुँचाने वाले विदेशी खरपतवारो का इस तरह हम उपयोग करे तो हमारा पर्व भी मन जायेगा और नुकसानदायक पौधे भी मर जायेंगे।
2 comments:
कचनार की पत्तियों की व्यथा कथा अच्छी लगी. बढ़िया संदेश. शायद कुछ नया चलन आये.
सही पंकज जी, बहुत से परम्परागत होने वाले रिचुअल्स पर पुनर्विचार की जरूरत है। तभी पर्यावरण बच सकेगा।
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