घास पर जमी है ओस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
जरा नयी पीढी को भी
ले चले साथ
औ’ बताये कैसे हम पर है
माँ प्रकृति का हाथ
बटोरे इस स्नेह को
बनके मासूम निर्दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
बच्चे जब होंगे बडे तो ओस
तो होगी
पर तब प्रदूषण बना रहा होगा
सब को रोगी
ओस को भी होगा काँक्रीट जंगल
पर गिरने का तब अफसोस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
हम ही है जो गँवाते जा रहे है
वो जो हमारे लिये हितकर है
उसे भी जो हमारे साथ रहने वाले
असंख्य जीवो का घर है
आरोग्य छोड जो हम पीडा को चुने
इसमे प्रकृति का क्या दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
2 comments:
चलिये, घर में लगाई है कुछ घास - उसपर नित्य चलने का यत्न करता हूं। कुछ कोस नहीं तो कुछ मीटर सही!
पर्यावरण पर बहुत बढिया रचना लिखी है।आज शहरों मे तो यह सच्चाई आम दीख पड़ती है।
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