हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?
इस विषय पर पहला आलेख झगडहीन (झगडा कराने वाली) नामक वनस्पति से जुडे विश्वास पर केन्द्रित है। आप इसे संजीव जी के चिठ्ठे ‘आरम्भ’ मे पढ सकते है।
हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?
इस विषय पर पहला आलेख झगडहीन (झगडा कराने वाली) नामक वनस्पति से जुडे विश्वास पर केन्द्रित है। आप इसे संजीव जी के चिठ्ठे ‘आरम्भ’ मे पढ सकते है।
पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
मेरे अपने लोग कभी
सडक चौडी करते
तो कभी फैलने के लिये
दूसरे का जीवन हरते
कितने बार मै बूढे वृक्षो के साथ
नित कटता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पर्यावरण पर लिख कितनो का
जीवन बन गया
विनाश से बचाने वालो का
जंगलो के सीने पर ही तंबू तन गया
कब तक मै औरो की तरह
इन ठगो को सहता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
क्या मेरा लेखन कभी
लालचियो के मन बदल पायेगा
क्या मुँह से पर्यावरण की दुहायी देते
पर कुल्हाडी चलाते हाथो को कुचल पायेगा
या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को
छलता रहूँगा
पता नही कब तक यूँ
बस लिखता रहूँगा
प्रकृति को उजडते बेबस सा
तकता रहूँगा
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित
घास पर जमी है ओस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
जरा नयी पीढी को भी
ले चले साथ
औ’ बताये कैसे हम पर है
माँ प्रकृति का हाथ
बटोरे इस स्नेह को
बनके मासूम निर्दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
बच्चे जब होंगे बडे तो ओस
तो होगी
पर तब प्रदूषण बना रहा होगा
सब को रोगी
ओस को भी होगा काँक्रीट जंगल
पर गिरने का तब अफसोस
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
हम ही है जो गँवाते जा रहे है
वो जो हमारे लिये हितकर है
उसे भी जो हमारे साथ रहने वाले
असंख्य जीवो का घर है
आरोग्य छोड जो हम पीडा को चुने
इसमे प्रकृति का क्या दोष
घास पर जमी है ओस
चलो चले उस पर कुछ कोस
पंकज अवधिया ‘दर्द हिन्दुस्तानी’
© सर्वाधिकार सुरक्षित