Sunday, December 30, 2007

हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?

हमारे विश्वास, आस्थाए और परम्पराए: कितने वैज्ञानिक कितने अन्ध-विश्वास?

इस विषय पर पहला आलेख झगडहीन (झगडा कराने वाली) नामक वनस्पति से जुडे विश्वास पर केन्द्रित है। आप इसे संजीव जी के चिठ्ठे आरम्भ मे पढ सकते है।

http://aarambha.blogspot.com/2007/12/chhattisgarh-1.html

Monday, December 24, 2007

पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ बस लिखता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा


मेरे अपने लोग कभी

सडक चौडी करते

तो कभी फैलने के लिये

दूसरे का जीवन हरते


कितने बार मै बूढे वृक्षो के साथ

नित कटता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

पर्यावरण पर लिख कितनो का

जीवन बन गया

विनाश से बचाने वालो का

जंगलो के सीने पर ही तंबू तन गया


कब तक मै औरो की तरह

इन ठगो को सहता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

क्या मेरा लेखन कभी

लालचियो के मन बदल पायेगा

क्या मुँह से पर्यावरण की दुहायी देते

पर कुल्हाडी चलाते हाथो को कुचल पायेगा


या यूँ ही पर्यावरणविद कहला अपने को

छलता रहूँगा

पता नही कब तक यूँ

बस लिखता रहूँगा

प्रकृति को उजडते बेबस सा

तकता रहूँगा

पंकज अवधिया दर्द हिन्दुस्तानी

© सर्वाधिकार सुरक्षित

घास पर जमी है ओस

घास पर जमी है ओस

घास पर जमी है ओस

चलो चले उस पर कुछ कोस

जरा नयी पीढी को भी

ले चले साथ

बताये कैसे हम पर है

माँ प्रकृति का हाथ


बटोरे इस स्नेह को

बनके मासूम निर्दोष

घास पर जमी है ओस

चलो चले उस पर कुछ कोस


बच्चे जब होंगे बडे तो ओस

तो होगी

पर तब प्रदूषण बना रहा होगा

सब को रोगी

ओस को भी होगा काँक्रीट जंगल

पर गिरने का तब अफसोस

घास पर जमी है ओस

चलो चले उस पर कुछ कोस


हम ही है जो गँवाते जा रहे है

वो जो हमारे लिये हितकर है

उसे भी जो हमारे साथ रहने वाले

असंख्य जीवो का घर है


आरोग्य छोड जो हम पीडा को चुने

इसमे प्रकृति का क्या दोष

घास पर जमी है ओस

चलो चले उस पर कुछ कोस

पंकज अवधिया दर्द हिन्दुस्तानी

© सर्वाधिकार सुरक्षित